पिछले कुछ सालों में हमारी केन्द्र सरकार लगातार ऐतिहासिक फैसले लेती आ रही है। ऐतिहासिक इस मामले में भी कि उन फैसलों पर सरकार की बड़े पैमाने पर आलोचना हुई है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के अनुसार नोटबंदी के फैसले ने 50 लाख लोगों से उनका रोजगार छीन लिया। 2020 के मार्च में चार घंटे की मोहलत देकर किए गए लाॅकडाउन ने हजारों मजदूरों को पैदल घरों की ओर कूच करने के लिए मजबूर किया जिसमें सैकड़ों की मौत हो गई। सरकार ने ये दोनों फैसले अर्थव्यवस्था को मजबूती देने और कोविड की रोकथाम से लिहाज से ऐतिहासिक बताए थे। इसके बाद 5 जून को सरकार ने कृषि से जुड़े तीन और ऐतिहासिक फैसले लिए हैं जिनका नतीजा है कि देष की कृषि करने वाली हजारों की आबादी देष की राजधानी में सरकार के खिलाफ धरने पर बैठी है।

सरकार द्वारा राज्यसभा में बिना वोटिंग के पारित करा लिए गए तीनों कृषि कानूनों को किसानों की नयी आजादी के रूप में प्रचारित किया जा रहा है लेकिन इन कानूनों से किसानों के बजाय काॅरपोरेट घरानों का हित ज्यादा होता दिख रहा है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी भी इन कानूनों से नदारद है। नतीजतन किसान इन कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। देष की आजादी के बाद किसानों का इतना व्यापक विरोध प्रदर्षन पहली बार है, जिसे दुनियाभर के किसानों, बौद्धिकों और नागरिक समाज संगठनों का समर्थन मिल रहा है, क्योंकि छोटे और सीमांत किसानों की चुनौतियां केवल भारत ही नहीं पूरी दुनिया में एक जैसी हैं। यह वाकई इतिहास में दर्ज होने वाला प्रदर्षन है। अगस्त में उच्चतम न्यायालय ने पिता की सम्पत्ति में बेटियों के उत्तराधिकार के संदर्भ में यकीनन एक अभूतपूर्व फैसला दिया है, जो संपत्ति में बेटियों को जन्म से ही समान अधिकार देता है।
इस अंक में हमने किसानों के विरोध, बेटियों के संपत्ति में अधिकार पर बात रखी है, साथ ही बंदी अधिकार, कोविड-19 व अन्य विषयों पर पैरवी के प्रयासों को साझा किया है।
– रजनीश साहिल

Public Advocacy Initiatives for Rights and Values in India