कोविड महामारी और वैक्सीन का पूँजीवाद

जून के अंत तक कोविड-19 महामारी से पूरी दुनिया में कम से कम 18 करोड़ बीमार हुए और 39 लाख 30 हजार लोग मारे गए हैं। भारत में भी तीन करोड़ से अधिक लोग बीमार और 3,97000 से अधिक मौतें हुई हैं। जहाँ बीमार लोगों की संख्या में भारत अमरीका से पीछे दूसरे स्थान पर है वहीं मौत के आंकड़े में भारत अमरीका और ब्राजील के बाद तीसरे स्थान पर है। अमरीका में तकरीबन छः लाख और ब्राजील में 5,14,000 लोग मारे जा चुके हैं।
महामारी ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया है। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाएँ, सामाजिक सुरक्षा, नौकरी व रोज़गार सभी कुछ चैपट हो गया और इसकी भरपाई में काफ़ी समय लगने की आषंका है। ग़रीब देषों की जनता, मज़दूर, बुज़ुर्गों और महिलाओं पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। ऐसा मानना है कि महामारी की वजह से 5 दषक में अत्यंत ग़रीबी में रहने वाले लोगों में इज़ाफ़ा हुआ है और 124 मिलियन और लोग गरीबी की चपेट में आ गए हैं। महामारी की वजह से 84 से 132 मिलियन लोग भूख का षिकार होंगे। दुनिया के आधे कामगार नौकरी छूटने की कगार पर खड़े हैं और आधी आबादी के पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। कुल मिलाकर स्थिति भयावह है और जल्दी सुधार की गुंजाइष नहीं दिखती।

वैक्सीन का पूँजीवाद
दुनिया को अभी अगर किसी एक चीज की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है तो वह है वैक्सीन। 26 जून तक दुनियाभर में 2,66,07,00,000 (दो अरब छियासठ करोड़ सात लाख) वैक्सीन के डोज़ दिए गए हैं। यह टीके ज़्यादातर धनी देषों में (अमरीका, कनाडा, यूरोप) में लगे हैं और कुछ विकासषील देषों में (चीन, ब्राजील, भारत)। जून के मध्य तक करीब 10 प्रतिषत लोग टीका लेकर पूरी तरह सुरक्षित हो गए हैं और यह सभी तकरीबन धनी देषों में ही हैं।
दुनिया के ग़रीब दषों में अभी तक एक प्रतिषत से भी कम लोगों को वैक्सीन की एक ही डोज मिली है। जन स्वास्थ्य की अच्छी समझ रखने वाले लोगों का मानना है कि महामारी ख़त्म करने के लिए कुल आबादी में से 70 प्रतिषत लोगों को टीका लगाकर सुरक्षित करना ज़रूरी है। कई देषों द्वारा आवष्यकता से काफी अधिक वैक्सीन की अग्रिम ख़रीद से वे इसे ग़रीब देषों तक पहुँचने में बाधा बन रहे हैं। जहाँ कनाडा अपनी जनसंख्या से पाँच गुना अधिक डोज़ ख़रीद चुका है, इंग्लैण्ड और अमरीका अपनी जनसंख्या से साढ़े तीन गुना ज़्यादा वैक्सीन ख़रीद चुका है। यूरोपीय यूनियन के कई अन्य धनी देष भी अपनी जनसंख्या से काफ़ी अधिक वैक्सीन की अग्रिम ख़रीद कर चुके हैं।
उच्च आय वाले देष जहाँ दुनिया की 15 प्रतिषत से भी कम जनसंख्या रहती है उन्होंने जून 2021 तक उपलब्ध होने वाली आधी से अधिक वैक्सीन ख़रीद रखी है। वैक्सीन तक देषों की पहुँच में ग़ैरबराबरी से भी ज़्यादा ख़राब है देषों के अंदर वैक्सीन देने में भेदभाव। कई देषों में देहात और ग़रीब क्षेत्रों में वैक्सीन का अभाव है। लातिन अमरीकी देषों में यह आम है कि जहाँ धनाढ्य वैक्सीन से सुरक्षित हो रहे हैं, वहीं ग़रीब जनता पर कोविड महामारी का दंष बराबर बना हुआ है। इंग्लैण्ड के एक प्रतिष्ठित विष्वविद्यालय में किए गए माॅडलिंग एक्सपीरिमेंट ने बताया है कि सिर्फ़ धनी देषों में वैक्सीन उपलब्ध करवाने के बजाय दुनिया के सभी हिस्सों में बराबरी से वैक्सीन पहुँचाई जाती तो महामारी में अभी तक हुई मौतों को आधा किया जा सकता था।

कोवैक्स का नाकाफ़ी प्रयास
विष्व वैंक, विष्व स्वास्थ्य संगठन, यूरोपियन कमीषन फ्रांस और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेषन द्वारा अप्रैल 2020 में कोवैक्स (ग्लोबल कोवैक्स इनीषिएटिव) की शुरुआत की गई थी जिसका लक्ष्य सभी देषों के सामुहिक प्रयास से दुनिया के ग़रीबतम देषों की 20 प्रतिषत जनसंख्या को 2021 के अंत तक वैक्सीन उपलब्ध करवाना था। लेकिन वैक्सीन की अग्रिम ख़रीद और कम उत्पादन की वजह से यह प्रयास अभी तक नाकाफ़ी रहा है। 190 देषों ने इस प्रयास में हिस्सेदारी की लेकिन यहाँ भी धनी देषों ने ग़रीब देषों के साथ वैक्सीन के लिए प्रतिद्वंदिता की। मई 2021 तक 130 देषों को वैक्सीन की एक भी डोज़ नहीं मिली थी। कोवैक्स की ज़्यादा ख़रीद भारत के सीरम इंस्टीट्यूट से थी जो समय पर वादे के मुताबिक वैक्सीन नहीं दे सका। वैक्सीन की कमी के अलावा भी कोवैक्स पर पारदर्षिता की कमी, धनी देषों और प्राइवेट उत्पादकों के दबदबे के आरोप हैं।

वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनिज़ेशन में वैक्सीन को पेटेंट से मुक्त करने की माँग
भारत और दक्षिण अफ्रीका ने 2020 में डब्ल्यूटीओ में वैक्सीन पर से पेटेंट हटाने की मांग की थी जिस पर काफ़ी आनाकानी के बाद अमरीका ने भी मई 2021 में एक तरह से अपनी सहमति दे दी है। डब्ल्यूटीओ के 164 में से 120 सदस्य देष इस प्रस्ताव से सहमत हैं। विष्व स्वास्थ्य संगठन, यूएन भी पेटेंट हटाने के पक्ष में हैं, लेकिन कुछ देष, ख़ासकर जर्मनी, इंग्लैण्ड, यूरोपीय संघ इत्यादि इस प्रस्ताव के विरोध में हैं। इनका मानना है कि पेटेंट हटाने से वैक्सीन की गुणवत्ता और उसके उत्पादन में कमी आएगी। इस प्रस्ताव पर निर्णय में भी महीनों से सालों लगने की संभावना है।
स्वाभाविक है कि वैक्सीन से अरबों रुपये कमाने वाली वैक्सीन उत्पादक कंपनियाँ भी इस प्रस्ताव के विरोध में हैं। उनका कहना है कि पेटेंट हटाना समाधान नहीं है क्योंकि पेटेंट हटाने के बाद भी वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाने में कई समस्याएँ हैं, जैसे कि देषों और महाद्वीपों में वैक्सीन बनाने वाली उत्पादन क्षमता की कमी (मसलन अफ्रीका में ऐसे सिर्फ़ नौ उत्पादक हैं जो वैक्सीन बना सकते हैं), टेक्नोलाॅजी और मानव संसाधन की मुष्किलें, कच्चे माल की कमी इत्यादि। देषों की अपनी नीतिगत समस्याएँ – जैसे भारत में 20 से अधिक वैक्सीन उत्पादन की कंपनियाँ हैं लेकिन अभी तक सिर्फ़ कुछेक ही वैक्सीन बना रही हैं – भी वैक्सीन उत्पादन में अडंगा डालती हैं।
67 देषों ने अपनी अग्रिम ख़रीद में से एक बिलियन वैक्सीन की डोज़ ग़रीब देषों को देने का वादा किया है। यह भी मंषा जताई है कि सभी देषों को जल्द से जल्द टीका उपलब्ध कराया जाएगा। लेकिन यह कैसे संभव होगा, इसकी कोई रूपरेखा नहीं है।
ऐसी परिस्थिति में लगता है कि ग़रीब देषों की जनता को वैक्सीन मिलने में कई साल लग सकते हैं। आनेवाले सालों में शायद हमें दो तरह का समाज दिखेगा। एक धनाढ्य, जो महामारी से निडर होगा, लेकिन दूसरा ग़रीब देषों का समाज, जिसके सिर पर महामारी और मौत का डर नाचता रहेगा। वैक्सीन का पूँजीवाद दुनिया में ग़ैरबराबरी बढ़ाकर उसे दो हिस्सों में बाँट देगा। अगर ये विषमता जल्दी दूर करने की कोषिष नहीं हुई तो दुनिया के धनाढ्यों पर और कई लाख मौतों का दोष होगा।
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