हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी यह पूरी दुनिया के लिए उम्मीदों, अटकलों और निरशाओं के मौसम की शुरुआत है। जो साथी जलवायु परिवर्तन और इससे जुड़े मुद्दों पर सक्रिय हैं वे इस मौसम की अहमियत समझते हैं। अगले महीने दिसम्बर में काॅप 28 का आयोजन होने जा रहा है जिसमें लगभग सारी दुनिया के प्रतिनिधि फिर एक बार इकट्ठे होंगे और जलवायु परिवर्तन की समस्याओं के समाधान पर चर्चा करेंगे। इस बार काॅप के शुरू होने से पहले ही निरशाओं के बादल घिरते नजर आ रहे हैं। एक तरफ जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए जीवाश्म ईंधन की समाप्ति की चर्चाएँ काॅप का हिस्सा हैं और दूसरी तरफ इस बार काॅप का आयोजन दुनिया के एक सबसे बड़े तेल उत्पादक देश में हो रहा है, जिसकी मंशा जीवाश्म ईंधन की समाप्ति की कतई नहीं है। लाॅस एंड डैमेज फंड को लेकर भी विकसित और गरीब व विकासशील देशों के बीच कई मतभेद हैं। ऐसे में इस बात की आशंका बढ़ती दिख रही है कि जितनी उम्मीद की जा रही है उस पर शायद ही काॅप 28 खरा उतरे।
भारत में अगले साल चुनाव का मौसम रहेगा। 18वीं लोकसभा के चुनाव होंगे और देश के अगले पाँच साल का भविष्य तय होगा। लेकिन उसके पहले फिलहाल चर्चा यह है कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिए या नहीं। ‘एक देश – एक चुनाव’ की हिमायत में वर्तमान सरकार है। यदि ऐसा होता है तो इसके क्या फायदे-नुकसान होंगे, चुनावी व्यवस्था में क्या परिवर्तन होंगे और इसका देश की लोकतांत्रित सेहत पर क्या असर होगा, इस पर चर्चाएं हो रही हैं। इसके लिए एक समिति गठित की जा चुकी है, जो आगामी कुछ माह में यह सुझाव देगी कि ‘एक देश – एक चुनाव’ होना चाहिए या नहीं।
कहते हैं कि मौसम की मार सबसे ज्यादा गरीब झेलता है। सरकार द्वारा ‘डिजिटल इंडिया’ का जो मौसम लाया गया वह निश्चित ही सुहावना है। कई लोगों के लिए कई चीजें आसान हुई हैं। इसी बहाने देश में डिजिटल लिटरेसी भी बढ़ी है। लेकिन इन तकनीकी हवाओं से गरीबों के जोड़ों में दर्द हो रहा है। इनकी मार देश के कमजोर व असुरक्षित समुदायों को झेलनी पड़ रही है, वह भी केंद्र और राज्य सरकारों की वजह से ही। ‘ह्यूमन राइट्स वाॅच’ और ‘इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन’ की एक संयुक्त रिपोर्ट में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
पैरवी संवाद के इस अंक में हमने उपरोक्त विषयों को समाहित करने का प्रयास किया है। आशा है कि यह आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा।
– रजनीश साहिल