कोविड-19 महामारी एक ऐसे संकट की तरह सामने आई है जिसका सामना इससे पहले शायद ही पूरी दूनिया ने कभी एक साथ किया हो। दो वर्ष से भी कम समय में किसी बीमारी से लाखों की तादाद में लोगों के मारे जाने, और करोड़ों लोगों के ग़रीबी और भुखमरी का षिकार होने का आंकड़ा भयावह है। अमरीका, ब्राजील और भारत इस महामारी के भयावह रूप को देखने वाले शीर्ष तीन देष रहे। भारत में ही तीन करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हुए हैं और तकरीबन चार लाख लोगों की मौत हुई है। ऐसी स्थिति में जब लोग महामारी से आतंकित रहे, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और वैक्सीन की अनुपलब्धता सरकारी प्रयासों की आलोचना का केन्द्र रहे हैं। दवाओं पर एकाधिकार भी चर्चाओं का प्रमुख बिंदु रहा।
वैष्विक पटल पर देखें तो वैक्सीन के मामले में पूँजीवादी दृष्टिकोण नज़र आता है, जहाँ धनी देषों को अपनी सुरक्षा के इंतज़ाम करने की सुविधा रही लेकिन ग़रीब और मध्यम आय वाले देषों के सिर पर वैक्सीन के अभाव की तलवार अभी तक लटकी हुई है। कोविड ने न केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से बल्कि आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व पर्यावरणीय स्तर पर भी लोगों के जीवन को बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है। चिंताजनक बात है कि दुनियाभर के लोगों को केंद्र में रखकर कार्ययोजना बनाने वाले संयुक्त राष्ट्र उच्च स्तरीय राजनीतिक मंच जैसे सांगठनिक समूहों का रवैया भी संकट की इस घड़ी में लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं रहा। न ही सतत् विकास लक्ष्यों पर महामारी के दुष्परिणामों से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति सामने आई, न ही मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई समावेषी योजना।
पैरवी संवाद के इस अंक में हमने कोविड महामारी के इन्हीं विविध पहलुओं को समाहित करने का प्रयास किया है।
– रजनीश साहिल