श्रम संहिताएं; सुधार और शिकायतें

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भारत में बीते 18-20 साल से श्रम कानूनों में सुधार की कोषिषें की जा रही हैं, ताकि उन्हें मौजूदा कार्यस्थलों, कामगारों और कार्य की प्रकृति के अनुरूप किया जा सके। साथ ही संगठित या असंगठित दोनों क्षेत्रों में काफी हद तक एकरूपता लाई जा सके। इसके लिए विभिन्न सरकारों ने कोषिषें की हैं, लेकिन मुष्किल यह है कि देष में श्रम कानूनों का इतिहास जितना पुराना है, उतने ही पुराने कानून भी आज तक चलन में हैं। 1923 का कर्मचारी मुआवजा अधिनियम हो या 1936 का मजदूरी भुगतान कानून या फिर 1948 के कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम और कारखाना अधिनियम इसके उदाहरण हैं। बीते तीन दषकों में भूमंडलीकरण के बाद तो देष में कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच के संबंधों में तेजी से बदलाव आया है। इन्हीं बदलावों को ध्यान में रखते हुए, एक ऐतिहासिक कदम के रूप में करीब चार सालों के विचार-विमर्ष के बाद 29 मौजूदा श्रम कानूनों को चार नई श्रम संहिताओं से बदलने की तैयारी की गई। यह संहिताएं मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा, औद्योगिक संबंध और व्यावसायिक सुरक्षा से संबंधित हैं। सरकार और उद्योग जगत का कहना है कि श्रम संहिताओं का उद्देष्य जटिल श्रम कानूनों को समेकित और सरल करते हुए युक्तिसंगत बनाना है। वहीं मजदूर संगठन और कर्मचारी यूनियनों का कहना है कि इन चारों संहिताओं से देष के मजदूरों के बीच असमानता की खाई गहरी होगी और साथ ही यह मजदूरों के हित में न होकर कारखाना मालिकों और अन्य नियोक्ताओं के पक्ष में ज्यादा हैं।
प्रस्तुत पुस्तिका में हम श्रम कानूनों की स्थिति, इसके प्रावधानों को समझते हुए जानने की कोषिष करेंगे कि आखिर वास्तिविक स्थिति क्या है? और इससे कैसे बाहर निकला जा सकता है।

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