जीवन और संघर्ष: उत्तर प्रदेश में ट्रांसजेण्डर की स्थिति और अधिकार

Excerpt:

सामाजिक ढांचे में जेण्डर या लैंगिक पहचान एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इस पहचान को सामाजिक मान्यताओं ने दिनों-दिन पुख्ता किया और समाज जेण्डर को स्त्री-पुरुष की ‘बाइनरी’ में ही देखने व समझने का अभ्यस्त रहा है। इस अभ्यास के कारण ही समाज में थर्ड जेण्डर को लेकर जो धारणा बनी, वह उनकी पहचान पर भी संकट पैदा करने वाली रही, क्योंकि वह प्रचलित बाइनरी से बाहर थे। इस पहचान को लेकर थर्ड जेण्डर समुदाय लम्बे समय से संघर्ष कर रहा है, यह संघर्ष सामाजिक और संवैधानिक दोनों स्तरों पर चल रहा है।

ट्रांसजेण्डर हमारे समाज के सबसे उपेक्षित वर्गों में से एक हैं, जिनके मानवाधिकारों का उल्लंघन प्रतिदिन होता है। पहचान के लिए समाज की स्वीकृति और संवैधानिक मान्यता दोनों बहुत जरूरी है। एक ऐसे समय में जब हाशिये के विषय मुख्यधारा में आ चुके हैं और खुल कर उनके अधिकारों पर बात हो रही है, उनकी पड़ताल की जा रही है और विविध दृष्टियों से उन पर विचार-विमर्श भी किया जा रहा है, तब भी ट्रांसजेण्डर पर उतनी बात नहीं हो रही है, जितनी अब तक हो जानी चाहिए थी। इनके साथ सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि समाज के साथ ही इनके स्वयं के परिवार वालों द्वारा भी इन्हें त्याग दिया जाता है। जन्म से लेकर जीवन भर ये समाज में रहते हुए भी समाज से इतर बहिष्कृत होकर जीवन यापन करते हैं। मूलभूत सुविधाओं और आवश्यकताओं के लिए भी इन्हें भेदभावपूर्ण संघर्ष करना पड़ता है। दरअसल हमारा समाज इन्हें अपने से अलग समझता है और खुद में शामिल नहीं करता, इनके लिंग को लेकर इनका मजाक उड़ाता है। उन्हें कभी नाॅर्मल न महसूस होने देना, धीरे-धीरे मानसिक बीमारियों और विकारों की तरफ धकेलता है। यही कारण है कि ट्रांसजेण्डर आबादी में आम आबादी की तुलना में आत्महत्या की दर अथवा आत्महत्या की कोशिश की दर सबसे ज्यादा है।

Download the publication